दसवं सूक्त  

ॠ. 5.  71

 

यज्ञमें आवाहन

 

    [ ऋषि उन वरुण और मित्रका सोम-हविके आस्वादनके लिए आवाहन करता है जो शत्रुओंके विध्वंसक हैं, हमारी सत्ताको महान् बनानेवाले हैं एवं अपने प्रभुत्व और प्रज्ञाके द्वारा हमारे विचारोंके सहायक हैं । ]

आ नो गन्तं रिशादसा वरुण मित्र बर्हणा ।

उपेमं चारुमध्वरम् ।।

 

(वरुण मित्र) हे वरुण ! हे मित्र ! (रिशादसा) हे शत्रुका संहार करने-वाले देवो1! (बर्हणा) अपनी महान् बनानेवाली शक्तिके साथ (नः इमं चारुम् अध्यरम्) हमारे इस आनन्दपूर्ण यज्ञमें (उप आगन्तम्) हमारे पास आओं ।

विश्वस्य हि प्रचेतसा वरुण मित्र राजथ ।

ईशाना पिप्यतं धिय: ।।

 

(वरुण मित्र) हे वरुण ! हैं मित्र ! तुम (हि) निश्चयसे (विश्वस्य राजय:) प्रत्येक मनुष्यके शासक हो और (प्रचेतसा) मेधावी विचारक हो । तुम (ईशाना) सबके स्वामी हो, (धिय: पिप्यतम्) तुम हमारे विचारोंका पोषण करो ।

उप नः सुतमा गत वरुण मित्र दाशुष: ।

अस्य सोमस्य पीतये ।।

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1. हमारी सत्ता, संकल्प और ज्ञानको कलुषित और क्षीण बनानेवाले शत्रुओं

  और घातकोंका विध्वंस करके वे हमारे अन्दर ''बृहत् सत्य''की अपनी

  विशिष्ट विशालताओंका संवर्धन करते हैं । जव वे शासन करते हैं

  तो दस्युओंका नियंत्रण हट जाता हैं और सत्यका ज्ञान हमारे

  विचारोंमें बढ़ जाता है ।

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(रुण मित्र) हे वरुण ! हे मित्र ! (म: सूतम्) हमारी सोमकी भेंट ग्रहण करनेके लिए (दाशुष: उप आ गतं) आत्मादानीके यज्ञमें पधारो, ताकि (अस्य सोमस्य पीतये) तुम इस सोममधुका पान कर सको ।

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